( कहानी शुरु होती है उस समय में, जब इंटरनेट था पर स्मार्ट्फोन नहीं। घर पर एक लैंडलाइन हुआ करता था और घर के प्रमुख के पास नोकिया का मोबाइल फोन। मोटे और बड़े से टीवी-कम्प्यूटर थे, और लोग मेसेज करने की जगह मिलकर बात किया करते थे। ) ये कहानी है गौरव और अंकिता की, जिन्होंने प्यार का हर एक मौसम बहुत करीब से महसूस किया।
बोर्ड परीक्षा के परिणाम आए एक ही दिन हुआ था। गौरव अखबारों में अपनी तस्वीर ढूंढता फिर रहा था। शहर में आने वाले सभी अखबार आज उसके घर में थे। हों भी क्यूँ ना, पूरे शहर में 10वीं कक्षा का टॉपर जो था वो।
एक छोटे शहर के आम परिवार से आने वाला गौरव, पढ़ाई और खेल के क्षेत्र में जितना कुशल था, बात-चीत के मामले में उतना ही फिसड्डी। मुश्किल से चार दोस्त थे उसके, करन, हितेश, रक्षित और शशांक। पर उसकी सबसे अच्छी दोस्त थी उसकी बड़ी बहन, निवि .. पूरा नाम, निवेदिता। निवि को वो अपनी हर बात बताता था। पढ़ाई से लेकर मस्ती तक, दोनों हर काम साथ करते थे। आज तक 'बेस्ट फ्रेंड' का हर निबंध, गौरव ने निवि पर ही लिखा था।
सारे अखबार छान लिए गये थे। गौरव का नाम जहाँ पर भी था, निवि ने वो पूरी खबर अखबार से काटकर, गौरव की डायरी में रख दी। बधाईयों और घर पर पकवानों का सिलसिला पूरे दिन चला। चारों दोस्त भी उस दिन उसी के घर थे। दोस्तों को अलविदा कहने के बाद, गौरव शाम को बिस्तर पर लेटा ही था कि उसको नींद ने अपनी आगोश में ले लिया।
"कितना सोएगा, उठ जा अब" माँ ने कंधे से हिलाते हुए उसे जगाया। घड़ी की सुइयां सात बजा चुकी थी। गौरव आधी नींद में उठकर बैठ गया। उसकी नज़र अपनी डायरी पर पड़ी, जिसमें से निवि के रखे हुए अखबार के टुकड़े झांक रहे थे। मुस्कुराते हुए उसने डायरी उठाई, और एक-एक करके सारी कटिंग देखने लगा। 'और इस वर्ष हमारे 10वीं के सिटी टॉपर रहे गौरव तिवारी' ये पढ़ते ही उसकी आँखें चमकने लगती। यूँ ही निहारते हुए उसने एक जगह पढ़ा 'भविष्य में डाक्टर बनना चाहती हैं'। वह रुका, कुछ शब्द पीछे गया और फिर से पढ़ा 'अंकिता जोशी ने शहर में तृतीय स्थान प्राप्त किया है, और वे भविष्य में डाक्टर बनना चाहती हैं'। वहीं पर एक धुंधली सी तस्वीर भी थी। गौरव ने पूरी जिज्ञासा से देखा, पर अखबार की छपाई के आगे उसकी आँखें हार मान गई। तभी माँ ने फिर से आवाज दी "बेटा खाना खा ले"। गौरव ने सभी कटिंग वापस डायरी में अच्छे से समेटी और खाना खाने चल दिया।
परीक्षा परिणाम आने से पहले दो महीने की लम्बी छुट्टियाँ पड़ती हैं। इन छुट्टियों में गौरव और उसके दोस्तों ने क्रिकेट के अलावा अपने करियर को लेकर भी बहुत सी योजनायें बनाई थी। गौरव 'सॉफ्टवेयर इंजीनियर' बनना चाहता था, तो उसके आगे के विषय निर्धारित थे। सभी दोस्तों ने शहर के सबसे प्रतिष्ठित कोचिंग संस्थान में दाखिला भी ले लिया था। नई कक्षा, नए विषय और नई जगह पढ़ने का उत्साह ही अलग होता है।
वो कोचिंग का पहला दिन था। पाँचों दोस्त एक ही पंक्ति में बैठे हुए थे, आगे से तीसरी। जाने-पहचाने-अंजाने सभी चेहरे थे वहाँ। कक्षा शुरु हुई और नई कॉपियों की महक पूरे कमरे में थी। गौरव की आँखें बोर्ड से कॉपी तक का सफर बार-बार तय कर रहीं थी। इस सफ़र में एक पड़ाव और जुड़ गया, जब गौरव की नज़र पहली पंक्ति पर बैठे एक चेहरे पर पड़ी। पीछे से वह चेहरा पूरा तो दिख नहीं रहा था, पर गौरव की आँखें चमकाने के लिए काफी था। अब सफ़र के तीन पड़ाव थे, बोर्ड, वो चेहरा और कॉपी। कक्षा समाप्त हुई, पर गौरव इंतज़ार में बैठा था, अपनी अधूरी कल्पना पूरी करने के लिए। तभी करन उसे खींचते हुए बोला "जल्दी चल, भारत-पाकिस्तान मैच है, अगर टॉस भी मिस हुआ, तो तू गया"। इसपर क्या करता वो, गौरव उस चेहरे को पूरा देखे बिना वापस घर लौट गया।
अगले दिन कोचिंग में रोमांच ही अलग था, एक ओर भारत की जीत की चर्चा, तो दूसरी ओर गौरव का कल का अधूरा काम, जो आज उसे पूरा करना ही था। इसलिये पूरे 20 मिनट पहले आ गया था वो उस दिन कक्षा में। आखिर वो लम्हा आ ही गया जिसके लिए गौरव टुकटुकी लगाये बैठा था। बस फिर क्या था, सारा शोर, शांती में बदल गया, गौरव के कान जैसे बंद हो गए थे, बस आँखें देख-सुन-पढ़ रही थी। उस शांति में उसे अपनी भागती धड़कनें महसूस हुई। जैसे-तैसे उसने खुद को सम्भला, बोर्ड, चेहरे ओर कॉपी का सफ़र तय किया और कक्षा के बाद घर चल दिया।
घर पहुँचा, तो उसकी आँखों की मुस्कान देखकर निवि ने पूछ ही लिया "क्या बात है ? कौन सी लॉटरी लग गई आज जो खुशी छिपाए नहीं छिप रही। " जवाब में गौरव ने 'ना' में सिर हिलाया और हल्की मुस्कान देकर अपने कमरे में चल दिया। उधर पिताजी ने रेडियो तेज किया, तो रफ़ी साहब कह रहे थे, "तेरी आँखों के सिवा दुनिया में रक्खा क्या है"। फिर क्या था, गौरव अपने खयालों में ऐसा खोया, कि विद्यालय से मिला कार्य ना करने पर, अगले दिन उसे कक्षा से बाहर जाना पड़ा।
एक महीना बीत गया था उस पहली मुलाकात को। कोचिंग में चलने वाला सफ़र गौरव रोज तय करता था, बस कभी बात करने की हिम्मत नहीं जुटा पाया। पर दोस्तों से बातें कहाँ छिपी रहती हैं। एक दिन कोचिंग के बाद शशांक ने बात छेड़ ही दी, " क्यूँ गौरव, बात नहीं की तूने अभी तक?" गौरव स्तब्ध सा देखता रहा "किस से" उसने पूछा । "वही जो क्लास में सबसे आगे बैठती है, अब भोला मत बन", हितेश की इस बात पर गौरव की मुस्कान देखते ही बनती थी। उसके गाल शर्म से लाल हो गए, उन पाँच लड़कों के बीच पहली बार ऐसी कोई बात हुई थी शायद। करन ने टाँग खीचते हुए कहा "इससे ना हो पाएगा कुछ"। रक्षित ने भी आग को हवा दी, "बात तो छोड़ो, नाम भी पता है क्या जनाब को उनका? " इस पर चारों दोस्त ठहाके मार कर हसने लगे। अब बात गौरव की 'इज़्ज़त' पर आ गई और उसने एक पहला कदम तो बढ़ाने का सोचा।
अगले दिन सभी दोस्त हमेशा की तरह अपनी तीसरी पंक्ति में बैठे थे। पर गौरव एक अलग ही तनाव में था, उसकी धड़कनें तेज थी, शरीर में बाहर कोई कम्पन नहीं थी पर वो अन्दर ही अन्दर कांप रहा था। तभी भीड़ में से वही पहचाना चेहरा क्लास के अन्दर आया और अपनी कुर्सी को सम्भाल कर बैठा गया। तभी पीछे से एक आवाज आई, "अंकिता, अपनी कॉपी पकड़ जल्दी से।" पीछे से आते हुए वो कॉपी गौरव के पास आई, उसमें लिखा था, 'अंकिता जोशी'। वो अपनी कुर्सी से उठा, पूरा हाथ बड़ाकर, एक मुस्कान के साथ उसने कॉपी अंकिता को सोंप दी। जवाब में उसे होठों के इशारे में "थैंक यू" मिला। गौरव का तो जैसे दिन ही बन गया। पूरी कक्षा के दौरान वो अखबार की उस कटिंग को ही याद करता रहा, जब उसने पहली बार वो नाम पढ़ा था। पर आज भी वो कोई बात नहीं कर पाया। वो हालातों को दोष दे रहा था, पर हालात उसे ही दोषी ठहरा रहे थे।
कुछ दिन गौरव शांत सा अपने ही खयालों में खोया रहा। फिर एक दिन उसके खुरापाती दिमाग में एक तरकीब आई, क्लास में 'सबका' ध्यान अपनी ओर खीचने की। पढ़ाई में वो अच्छा था ही, तो उसने सबसे पहले सवालों के हल बताना, टीचर से सवाल पूछना, आदि, जैसे अस्त्रों का प्रयोग शुरु कर दिया। और तीसरे ही दिन परिणाम उसके सामने था। क्लास के बाद सभी दोस्त 'मुद्दों' पर चर्चा कर रहे थे, तभी गौरव ने पीछे से एक आवाज सुनी, "एक्सक्यूज़ मी गौरव"। गौरव पीछे मुड़ा तो अंकिता उसके सामने खड़ी थी। "वो आखिरी सॉल्यूशन समझ नहीं आया, आप बात देंगे ?", अंकिता ने कहा। गौरव के मुँह से शब्द ही नहीं निकले, उसका दिल इतने ज़ोर से धड़कने लगा मानो बाहर ही आ जाएगा। जैसे-तैसे उसने खुद को संभाला और अंकिता की कॉपी में हल लिखने लगा। उसके हाथ और आवाज़ दोनों कांप रहे थे। पूरा होने पर उसने अंकिता की कॉपी लौटाई और वो "थैंक्स" बोलकर चली गई। उसके जाने के बाद गौरव ने अपने माथे पर पसीना महसूस किया, जो अब उसके कान तक आ पहुँचा था। उफ्फ़, बड़ी मुश्किल से 'बच' पाया था गौरव उस दिन, पर दोस्तों को ट्रीट देने से उसे कोई नहीं बचा पाया।
धीमे-धीमे खिलने वाले प्यार का एहसास ही कुछ और होता है। सिलसिला चलता रहा, बातें-मुलाकतें होती रही, दोस्त उकसाते रहे, लैंडलाइन नम्बर और घर का पता भी चल गया। पर गौरव ने अपने मन की बात कभी अंकिता को नहीं कही। ऐसा नहीं था कि उसमें हिम्मत कम थी, वो हर परिणाम को ध्यान में रखकर निर्णय लेता था। दो डर थे उसके मन में, एक पढ़ाई पर असर होने का और दूसरा अपना दोस्त खोने का। महीने, साल बीत गए। 12वीं की परीक्षा सिर पर थी तो सभी पूरा ज़ोर लगा रहे थे। कोचिंग में सिलेबस पूरा हो गया था और रिवीजन का समय था। मिलने की तड़प गौरव के अन्दर थी, पर परीक्षा का डर उससे ऊपर था। उसने तय कर लिया था कि परीक्षा खत्म होते ही वो अंकिता से इस विषय में बात करेगा, आगे उसकी मर्जी।
प्यार की मीठी सी कसक में जी रहा था वो। पढ़ने बैठता तो क्लास का माहौल उसके सामने आ जाता। वो सफ़र जिसे वो हर रोज तय करता था, वो चेहरा जिसकी बस एक झलक देखने के लिए वो सबसे पहले आ जाता था और क्लास का अंत होने पर सबसे आखिर में उठता था। वो खुमारी जो उन बड़ी आँखों को देखकर उसे चड़ जाती थी और वो खूबसूरत मुस्कुराहट, जिसे देखकर वो कहीं खो जाता था। सब कुछ उसकी आँखों के सामने ऐसे चलता, जैसे वो अभी भी क्लास में ही बैठा हो। वो पहली मुलाकत, वो पहली बात, ये सब याद करके उसका चेहरा खिलने लगता। हाय ! इंतज़ार की सर्दी में भी कई फल उगा लिए थे उसने अपने प्यार के पेड़ पर।
बोर्ड परिक्षा का आखिरी दिन था। गौरव ने 'दोनों इम्तिहानों' की तैयारी कर ली थी। फिज़िक्स का पेपर देकर सभी विद्यार्थी बाहर गुटों में बात कर रहे थे। परीक्षाएँ खत्म होने की खुशी सबके चेहरे पर दिख रही थी। पर गौरव की आँखें तो बस अंकिता को ढूंढ रही थी। उसकी नजरों को नज़ारा मिल गया था। अंकिता अपने दोस्तों से घिरी हुई थी। गौरव ने हाथ से इशारा कर उसे अपनी ओर बुलाया। बिना एक क्षण देरी किये, अंकिता गौरव के सामने खड़ी थी। वक्त थम गया था और धड़कनें तेज हो गई थी। गौरव अंकिता के थोड़ा और करीब गया और कांपती हुई आवाज़ में बोला, "अंकिता, मैं तुम्हें बहुत पसंद करता हूँ, और अपनी पूरी जिंदगी तुम्हारे साथ बिताना चाहता हूँ।" कुछ देर तक अंकिता बिना कुछ बोले, बिना चेहरे में कोई भाव लिए, अपनी उन बड़ी, खूबसूरत आँखों से गौरव को देखते रही। फिर अपनी चिर-प्रचलित मुस्कान देकर, अपने दोस्तों के बीच चली गई। गौरव वहीं खड़ा रहा, उसे कुछ ना सूझा की हुआ क्या। "उससे दोबारा बात करूँ या नहीं ? बुरा मान गई तो ? कुछ बोलकर तो जाती, ऐसे मुस्कुरा के बिना कुछ बोले कौन जाता है ?" गौरव अपने इन्हीं विचारों की उधेड़-बुन में था कि रक्षित उसे दूंढता हुआ वहाँ आ पहुँचा। "तुझे तो अकेला छोड़ना ही नहीं चाहिए, पता नहीं कहाँ गुम हो जाता है, चल अब जल्दी।" रक्षित ने लगभग चिल्लाते हुए कहा। गौरव उसके पीछे-पीछे चल दिया।
घर जाकर गौरव ने कई खयाली पुलाव बनाए। बात करने का कोई और जरिया तो था नहीं तो कभी घर पर कॉल करने का खयाल, कभी उसके घर ही चले जाने का विचार, कभी उसके करीबी दोस्तों से कहकर उससे मिलने की तरकीब, सारा मंथन कर लिया था उसने। पर उससे होने वाला कुछ था नहीं। निवि से उसके माथे की शिकन छिपी नहीं। उसके पूछते ही गौरव बिखर गया। पिछ्ले दो साल की बातें और आज का समाचार, सब एक साँस में बोल गया वो। निवि ने उसे संभालते हुए कहा ," मेरा एक दोस्त अंकिता के घर के पास रहता है, उससे कहकर कुछ जुगाड़ लगवाती हूँ तेरी बात का।" आधे से उस वादे से गौरव का कुछ होना तो था नहीं, पर वो थोड़ा थम गया।
तीन दिन बाद निवि के खबरी सूत्रों से पता चला कि अंकिता दिल्ली जा रही है, मैडिकल प्रवेश परिक्षा की तैयारी के लिए। गौरव के लिए ये कोई अच्छी खबर नहीं थी। उसके अगले कुछ दिन उदासी में निकले। उसे पता था कि अगर उसने अभी कुछ नहीं किया, तो अंकिता को वो शायद हमेशा के लिए खो देगा। एक ओर तो वो तड़प रहा था अंकिता से बस एक बार मिलने के लिए, पर दूसरी तरफ उसके अन्दर एक गुस्सा भी था कि उसे बिना कुछ बताये, बिना उसकी बात का कोई जवाब दिए वो ऐसे ही जा रही है। "क्या उसकी भावनाओं की कोई कद्र नहीं है, क्या उसकी दोस्ती की कोई कीमत नहीं है, इतनी खुदगर्ज़ कैसे हो सकती है वो, आखिर हर कोशिश मैं ही क्यों करूँ", इन्हीं विचारों ने घेर लिया था उसे।। अब गौरव ने अंकिता से मिलने का कोई प्रयास ना करने का फैसला किया, 'अहं' जाग गया था उसका। निवि ने भी आगे कुछ ना कहना ही सही समझा। जून के महीने में इंजिनीयरिंग प्रवेश परीक्षा का परिणाम आ गया। पर गौरव को दिल्ली में सॉफ्टवेयर इंजिनीयरिंग की सीट नहीं मिल पाई। उसने अपने सपनों ,या शायद अपने अहं की सुनी और मुंबई में दाखिला ले लिया।
अहं के सामने प्यार अक्सर हार ही जाता है। या कहें कि जहाँ अहं होता है, वहाँ प्यार टिक ही नहीं सकता। यही हुआ था गौरव के साथ जो उसने दिल्ली की जगह मुंबई ही जाने का फैसला लिया। दूसरी तरफ़ अंकिता की बात करें, तो जिंदगी के अहम पड़ाव पर, इतना महत्वपूर्ण फैसला, इतनी जल्दी लेना, उसके बस में न था। गौरव तो बस ये सोचकर चला था की जिंदगी की राह सीधी है, दोराहे उसकी सोच से परे थे। बस यहीं मात खा गया था वो शायद।